Multapi Samachar
सभी प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व डिजिटल मिडिया के पत्रकार बंधुओं को हिंदी पत्रकारिता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं, पत्रकारिता का स्वरुप चाहे जैसा भी हो मसलन ख़बरें चाहे प्रिंट यानि कागजों पर प्रकाशित हो या ऑडियो यानी रेडियों पर या फिर ऑडियो-वीडियों यानी टेलीविजन पर लेकिन होगा तो वह समाचार ही, समय के साथ – साथ जिस तरह सभ्यता, खानपान, मनोरंजन एवं रहनसहन में बदलाव हुआ है वैसे ही समाचारों के प्रस्तुति करण के स्वरुप में भी बदलाव हुआ है। समाचार कागज से निकल कर , तरंगो के माध्यम से रेडियों पर आये , फिर वही तरंगे रेडियों से निकल टेलीविजन पर और आज इंटरनेट माध्यम से मोबाईल पर।
आज की विकसित तकनिकी की वजह से प्रिंट , ऑडियो, ऑडियो – वीडियों ये सभी का मिश्रित रूप से एक साथ “डिजिटल मिडिया” के स्वरुप में आपके सामने है। और ये सिर्फ इंटरनेट की गति की वजह से संभव हुआ है । लेकिन सभी माध्यमों का आधार भाषा है फिर वो चाहे क्षेत्रीय भाषा हो या हमारी राष्ट्र भाषा हिंदी।
आज इंटरनेट माध्यम से विकसित पत्रकारिता पर कई लोग सवाल उठाते है। जैसे प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया मान्य है। भारत सरकार द्वारा इसे कानूनी मान्यता दे दी गई है साथ ही इसे उद्योग के रूप में विकसित करने जा रही है । वेब आधारित पत्रकारिता पर भी वही नियम लागू होते है जो प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया के लिए निर्धारित है।
ये लड़ाई तो हम 2005 से लड़ते आ रहे है ,लेकिन हम आज बात अपनी नहीं ,उनकी करेंगे जो जिन्होंने आजादी के 100 सालों से भी पहले हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत की। और इतिहास रच गए।
हिंदी भाषा में ‘उदन्त मार्तण्ड’ के नाम से पहला समाचार पत्र 30 मई 1826 में निकाला गया था। इसलिए इस दिन को हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने इसे कलकत्ता से एक साप्ताहिक समाचार पत्र के तौर पर शुरू किया था। इसके प्रकाशक और संपादक भी वे खुद थे। इस तरह हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले पंडित जुगल किशोर शुक्ल का हिंदी पत्रकारिता की जगत में विशेष सम्मान है।
जुगल किशोर शुक्ल वकील भी थे और कानपुर के रहने वाले थे। लेकिन उस समय औपनिवेशिक ब्रिटिश भारत में उन्होंने कलकत्ता को अपनी कर्मस्थली बनाया। परतंत्र भारत में हिंदुस्तानियों के हक की बात करना बहुत बड़ी चुनौती बन चुका था। इसी के लिए उन्होंने कलकत्ता के बड़ा बाजार इलाके में अमर तल्ला लेन, कोलूटोला से साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन शुरू किया। यह साप्ताहिक अखबार हर हफ्ते मंगलवार को पाठकों तक पहुंचता था।
परतंत्र भारत की राजधानी कलकत्ता में अंग्रजी शासकों की भाषा अंग्रेजी के बाद बांग्ला और उर्दू का प्रभाव था। इसलिए उस समय अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी में कई समाचार पत्र निकलते थे। हिंदी भाषा का एक भी समाचार पत्र मौजूद नहीं था। हां, यह जरूर है कि 1818-19 में कलकत्ता स्कूल बुक के बांग्ला समाचार पत्र ‘समाचार दर्पण’ में कुछ हिस्से हिंदी में भी होते थे।
हालांकि ‘उदन्त मार्तण्ड’ एक साहसिक प्रयोग था, लेकिन पैसों के अभाव में यह एक साल भी नहीं प्रकाशित हो पाया। इस साप्ताहिक समाचार पत्र के पहले अंक की 500 प्रतियां छपी। हिंदी भाषी पाठकों की कमी की वजह से उसे ज्यादा पाठक नहीं मिल सके। दूसरी बात की हिंदी भाषी राज्यों से दूर होने के कारण उन्हें समाचार पत्र डाक द्वारा भेजना पड़ता था। डाक दरें बहुत ज्यादा होने की वजह से इसे हिंदी भाषी राज्यों में भेजना भी आर्थिक रूप से महंगा सौदा हो गया था।
पंडित जुगल किशोर ने सरकार ने बहुत अनुरोध किया कि वे डाक दरों में कुछ रियायत दें जिससे हिंदी भाषी प्रदेशों में पाठकों तक समाचार पत्र भेजा जा सके, लेकिन ब्रिटिश सरकार इसके लिए राजी नहीं हुई। अलबत्ता, किसी भी सरकारी विभाग ने ‘उदन्त मार्तण्ड’ की एक भी प्रति खरीदने पर भी रजामंदी नहीं दी।
पैसों की तंगी की वजह से ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन बहुत दिनों तक नहीं हो सका और आखिरकार 4 दिसम्बर 1826 को इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया। तब में और अब में क्या फर्क है पत्रकारिता तो तब भी अपना अस्तित्व बचाने लड़ रही थी। और आज भी वही हाल है। तो बदला क्या….?
आज का दौर बिलकुल बदल चुका है। पत्रकारिता में बहुत ज्यादा आर्थिक निवेश हुआ है और इसे उद्योग का दर्जा हासिल हो चुका है। हिंदी के युवा पाठकों की संख्या बढ़ी है और इसमें लगातार इजाफा हो रहा है। इंटरनेट ने इसे और भी आसान बना दिया है। ख़बरें आज भी वही है सिर्फ पाठकों तक पंहुचने का माध्यम बदला है।